Last modified on 18 अगस्त 2008, at 20:10
जिजीविषा (कविता) / महेन्द्र भटनागर
- जी रहा है आदमी
- प्यार ही की चाह में !
- पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
- घोर गहगह कर घहरतीं आँधियाँ,
- पर,
अजब विश्वास ले
- सो रहा है आदमी
- कल्पना की छाँह में !
- जी रहा है आदमी
- प्यार ही की चाह में !
- पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
- खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
- पर,
अजब विश्वास ले
- चल रहा है आदमी
- साथ पाने राह में!
- जी रहा है आदमी
- प्यार ही की चाह में !
:
- बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
- कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
- :पर,
अजब विश्वास ले
- हँस रहा है आदमी
- आँसुओं में,
आह में!
- जी रहा है आदमी
- प्यार ही की चाह में!