जितने भी हुए हैं ज़ुल्मो-सितम
जितने भी मिले हैं रंजो-अलम
उतना ही शेर हुए हैं हम
कुछ और दिलेर हुए हैं हम
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।
दो जून नहीं एक जून सही
भूखों रहकर भी जीते हैं
हम रोज़ खोदते हैं कूआँ
तब जाकर पानी पीते हैं
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।
ज़ख़्मों से अगरचे चूर हैं हम
मंज़िल से अगरचे दूर हैं हम
ये बात ज़माना याद रखे
मजबूर नहीं मज़दूर हैं हम
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।
जिस रोज़ बिगुल बज जाएगा
ये टाट पलट कर रख देंगे
हम रोज़ उलटते हैं धरती
धरती को उलटकर रख देंगे
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।
रचनाकाल : फ़रवरी 1980