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जितने ही उत्साह और उम्मीद के साथ / शैलेय

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जितने ही उत्साह और उम्मीद के साथ मेरा दिन गुज़रता है
शाम अक्सर उतनी ही उदास और स्याह हो आती है
खाना ख़राब हो आता है कि
रात कुछ और अधिक भारी हो आती है
तो क्या
इसके लिए मैं ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ
या कि घर वाले
जो बिना मेरे
अपने हिस्से का कौर तक ग्रहण नहीं करते
जो मेरे मुद्दों से सहमत होते हुए भी
मेरी भलाई को मुझसे झगड़ते ही रहते हैं

झगड़ते ही रहते हैं कि
रोज़ाना ही देर रात तक मेरा असह्य इन्तज़ार करते हुए या
इसी गाँव-कस्बा-शहर में मीटिंग दर मीटिंग से लेकर
जुलूस-धरना-प्रदर्शन की दौड़ भाग करते हुए
जब तीन-तीन चार-चार दिनों तक भी
मैं घर नहीं आ पाता हूँ तो
उनके लिए दिन
किस तरह घटाटोप में डूबे हुए होते हैं कि
उनकी खुली आंखों को कैसे-कैसे दुःस्पप्न घेरे रहते हैं कि
रात किस तरह उन्हें थर-थर कँपाती है

मैं जब उन्हें कुछ समझाने लगता हूँ तो
पहले तो वे पूरी बात सुन भी लिया करते थे
दुनिया-समाज को लेकर मेरे साथ मगजमारी भी करते थे किंतु
अब तो जैसे वे चिढ़ ही जाते हैं

इतना चिढ़ जाते हैं कि
मैं घर का न होता तो
बाहर के बहुतेरों की तरह
वे भी मुझसे कोई बात नहीं करते
बल्कि मुझे सनकी भटका हुआ आत्मघाती कहकर
खुद अपने लिए भी सबसे ज़्यादा ख़तरनाक ठहरा देते
कि वे पर्चे-वे अख़बार-वे पत्रिकाएँ
जिन्हें हम कैसे-कैसे तैयार किया करते हैं
कि एक-एक समझा बुझाकर पढ़ने को कहते हैं
बहुतेरी की तरह
वे भी अब इनसे विमुख हो आए हैं

इतना ही नहीं
वे दुनियादार लोग
जो हमारी किताबों
हमारी मीटिंगों
हमारे नुक्कड़ नाटकों
हमारे जलूस-धरान-प्रदर्शन में शिरकत तो दूर
हमारे ज़िक्र से तक मुँह चुराते खिसक लेते हैं
वे अब घरवालों को ज़्यादा समझदार लगने लगे हैं और
मुझे भी उन जैसा ही बना देने को व्यग्र
इन्होंने अपना एड़ी-चोटी एक किया हुआ है

यों मैं कोई निराला प्राणी नहीं हूँ
न मेरी सोच में ही कोई ऐसी नई बात है
आँखें सकून भरी नींद से जागें
सुबह के उजाले में
ज़रूरत का खान-पान
रहन-सहन
ज़मीन-आसमान
ख़ुशी-ख़ुशी सबको बराबर मिले
ऐसा भला
कौन भला आदमी
कौन भला घर नहीं चाहेगा?

बस, इतनी सी बात
कि जिस पर बात करना इतना संगीन अपराध बना हुआ है
कि अपने पैरों पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी मारना भी कहाँ
अपनी गर्दन ही नश्तर के तख़्त पर रख देना है

क्या हमें अपने
अपने बच्चों
अपने आने वाली तमाम नस्लों की ख़ातिर
इस बात का ख़ुलासा नहीं करना चाहिए
यदि ना
तो क्या यह आत्महत्या नहीं है
यदि हाँ
तो फिर ऐसी चिन्ता का आख़िर क्या सबब कि
कौन तुम्हारी बात सुनने वाला है
कि दो-चार लोगों से भी दुनिया कहीं बदली
जबकि घर वाले ही नहीं
बाहर वाले भी सभी जानते हैं कि
दो और दो का जोड़ हमेशा चार नहीं होता है।