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जिन्हें वे सँजोकर रखना चाहती थीं / सुधा अरोड़ा

वे रह रह कर भूल जाती हैं
अभी अभी किसका फोन आया था
किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता
कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी
याद नहीं आ रहीं...

दस साल हो गए
अजीब सी बीमारी लगी है जान को
रोग की तरह... भूलने की
बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता
सब भूल-भूल जाता है

वह फोन मिलाती हैं
एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए
और उधर से 'हलो' की आवाज आने तक में
भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था
वह शर्मिंदा होकर पूछती हैं,
'बताएँगे, यह नंबर किसका है?'
'पर फोन तो आपने किया है!'
सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं

क्या हो गया है याददाश्त को
बार-बार बेमौके शर्मिंदा करती है!

किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा
इतराकर खिलते हुए फूल का नाम
नौ बजे वाले सीरियल की कहानी का
छूटा हुआ सिरा,
कुछ भी तो याद नहीं आता
और याद दिलाने की कोशिश करो
तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं
जैसे कहती हों, चैन से रहने दो,
मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें!
बस, यूँ ही छोड़ दो जस का तस!
वर्ना नसों में दर्द उठ जाएगा
और फिर जीना हलकान कर देगा,
सुन्न कर देगा हर चलता फिरता अंग
साँस लेना कर देगा दूभर
याददाश्त का क्या है
वह तो अब दगाबाज दोस्त हो गई है
कूरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक
दूधवाले से लिए खुदरा पैसे
कहाँ रख दिए, मिल नहीं रहे
चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं
पगलाई सी ढूँढ़ती फिरती है घर भर में
एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत का
जवाब देना था
जाने कहाँ कागजों में इधर उधर हो गया
सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में
जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो गए हों...

नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि
बीस साल पहले उस दिन
जब वह अपनी
शादी की बारहवीं सालगिरह पर
रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए
उछाह भरी लौटी थीं
पति रात को कोरा चेहरा लिए
देर से घर आए थे
औरतें ही भला अपनी शादी की
सालगिरह क्यों नहीं भूल पातीं?

बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल,
सब बेशुमार दोस्तों के नाम,
उनके लिए तो बस बंद दराजों का साथ
और अंतहीन चुप्पी
और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े
करवटें बदलती रहतीं रात भर!

पति की जेब से निकले
प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें
शब्द दर शब्द रटी पड़ी हैं उन्हें -
चश्मे के केस में रखी चाभी से
खुलती खुफिया संदूकची के ताले से निकली -
सूखी पत्तियों वाले खुरदरे रूमानी कागजों पर
मोतियों सी लिखावट में प्रेम से सराबोर
लिखी गई रसपगी शृंखला शब्दों की
जिन्हें उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए
और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं जिंदगी भर!
सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी
उस 'मीता' के नाम
जिन्हें वह भूलना चाहती हैं
रोज सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से
कूड़ेदान में फेंक आती हैं -
पर वे हैं
कि कूड़ेदान से उचक उचक कर
फिर से उनके इर्द-गिर्द सज जाती हैं
जैसे उन्हें मुँह बिरा-बिरा कर चिढ़ा रही हों।

...और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है
बहुत सारा वह सब कुछ भी
याददाश्त से बाहर
जिन्हें वह सँजोकर रखना चाहती थीं,
और रख नहीं पाईं...