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जिन्हें हम देवता समझते हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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जिन्हें हम देवता समझते हैं।
वो महज़ अर्चना समझते हैं।

जो हवा की दिशा समझते हैं।
उन्हें हम धूल सा समझते हैं।

चाँद रूठा हैं क्योंकि उसको हम,
एक रोटी सदा समझते हैं।

तोड़ कर देख लें वो पत्थर से,
जो हमें काँच का समझते हैं।

फूल चढ़ते जो राम के सर वो,
ख़ुद को रब से बड़ा समझते हैं।