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जिन्हे पानी चाहिए.... / सूरज

दो नौ-उम्र लड़कियाँ खड़ी
घाट की सीढ़ियों पर
एक दूसरे से बिनबोले बतियाए
खींच रहीं हैं एक ही सिगरेट के
लगातार दिलकश कश..

दोनों स्थिरचित्त हैं
जीवन में उनकी असीम आस्था
उनकी आँखो के पानी से झिलमिला रही है.
नदी निहार रही है उन्हे एकटुक
हज़ारों वर्ष पुरानी काशी भी
नाव भी
घाट, घाट की चौकी,
छतरियाँ, गोलगप्पे, कदम्ब का पेड़,
आते-जाते हिन्दी के राहगीर... सब के सब

वे दोनों किसी को नहीं देख रहीं हैं.

उन दोनों नौ-उम्रों के साँवलें होठों पर
खिलती है मुस्कुराहट गोया नाव से
पूछा हो : एक कश चलेगा ?
नाव ने लजाते हुए इंकार किया ।

चाँद और उन दोनों के चेहरे का रंग उदास हुआ है
उनके चेहरे का पानी ज़रा छलका
जब यह सवाल नदी की ओर उछाला ।
नदी ने अपने फेफड़े में पैठे दर्द की जामिन
बताया,
रोक दिया गया है मेरा रक्त-प्रवाह
ऊपर कहीं हिमालयी इलाके में

लड़कियों ने भरे आख़िरी कश
धुआँ उनकी आँखों में उतर आया

सिगरेट का आख़िरी टुकड़ा उछाला
नदी के सीने पर जैसे रोपा हो
सिगरेट के बीज...

उठीं
और चल पड़ीं किसी सोच में डूबी
जैसे जाना हो इन्हें टिहरी
करना हो इन्हे नदी के फेफड़े का इलाज ।