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जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में / फ़ातिमा हसन

जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
अब लिख रही हूँ उन को हक़ीक़त के बाब में

इक झील के किनारे परिंदों के दरमियाँ
सूरज को होते देखा था तहलील आब में

ख़्वाबों पे इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
कब ज़िंदगी गुज़ारी है अपने हिसाब में

इक हाथ उस का जाल पे पतवार एक में
और डूबता वजूद मिरा सैल-ए-आब में

पुरवाई चल के और भी वहशत बढ़ा गई
हल्की सी आ गई थी कमी इजि़्तराब में

आज़ाद हैं तो बाग़ का मौसम ही और है
ख़ुशबू है तेज़ रंग भी गहरा गुलाब में

अपनी ज़मीं की आब-ओ-हवा रास है मुझे
मेरे लिए कशिश नहीं कोई सराब में

देखो जुनूँ में उन के खिलौने न तोड़ना
तुम को रक़म करेंगे ये बच्चे किताब में