Last modified on 2 सितम्बर 2013, at 15:35

जियरा के पीर बुझे / रामबिहारी ओझा 'रमेश'

जियरा के पीर बुझे जग ना अनाड़ी
चिलमी जीवन मोर आगि से इयारी।

गर में जहर जरे, धुआँ उठे ठोढ़िया,
झउँसि-झउँसि जाले हिरिदा के कोंढ़िया,
मथथा प महाकाल मारे फुफुकारी।

कतने जनमवाँ के हम विरहिनियाँ,
पिया के खोजत मोर बीतलि जवनियाँ,
अँखिया में माड़ी साथ देले ना बुढ़ारी।

सुखिया का सुख मिले दुखिया के कान्हें,
स्वारथी सनेहिया के रसरी में बान्हें,
दियरी के अन्हियो भरेले अँकवारी।

जिनिगी के आह जब दाह बनि जाला,
प्रीति के पुतरिया के मोम गलि जाला,
बदरी सहेले बीखि बिजुरी के गारी।

मनवाँ के तार पर भार जो परेला,
प्रान के सितरवा पुकार जो करेला,
केने दो से आके केहू भरे टिहुकारी।