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जिसे कोई आसक्ति न हो मैं उस फ़क़ीर से डरता हूँ / डी. एम. मिश्र

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जिसे कोई आसक्ति न हो मैं उस फ़क़ीर से डरता हूँ
किसी और से नहीं मगर अपने ज़मीर से डरता हूँ

अशुभ लकीरें माथे पर हों उनसे कोई ख़ौफ़ नहीं
मगर दिलों के बीच खिंचे जो उस लकीर से डरता हूँ

कभी मेरे सम्मुख भी आओ धनुष उठाओ तब देखेा
मगर चले जो पीछे से उस छुपे तीर से डरता हूँ

जन्म दिया आँधी ने मुझको तूफ़ानों ने पाला है
मगर मेरे जो होश उड़ा दे उस समीर से डरता हूँ

कब भावुकता के क्षण में दुर्बलता मेरी आ जाये
कड़े फ़ैसले लेने हों तो मन अधीर से डरता हूँ

अगर सामने चींटी हो तो पग पीछे कर ले अपने
मगर बाघ से लड़ ले जो उस परमवीर से डरता हूँ

यह मत भूलो बापू जी के सपनों का यह भारत है
जिसमें हिटलरशाही हो मैं उस वज़ीर से डरता हूँ