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जिसे गढ़ा शब्दों में हमने / सरोज मिश्र

जिसे गढ़ा शब्दों में हमने गीतों के परिधान दिये!
नगर नगर हम भटके जिसकी, छवि नयनों में लिये लिये!
पूरा होगा स्वप्न अधूरा, उस दिन ये विश्वास हुआ!
तुम तो बिल्कुल वैसी ही हो, मन में जब आभास हुआ!

घिरी बादलों से वह कोई, उमस भरी दोपहरी थी!
अनुपम कृति हो तुम विधना की, दृष्टि तुम्हीं पर ठहरी थी!
दर्श तुम्हारा ज्यों मरुथल में, पहली बारिश हो जाये!
भोला मन देखे मेले को, फिर मेले में खो जाये!

उड़ते केश तुम्हारे जैसे, होड़ लगायें बादल से!
और ताकते रहें एकटक, सूखे पनघट पागल से!
अधर तुम्हारे हिलें तो जागे, नस-नस में सोई धड़कन!
मौन अधर ज्यों लगे क्षितिज पर, नभ से धरती का चुम्बन!

नयन तुम्हारे दो मतवाले, भरे-भरे मधु के प्याले!
चाल कि जैसे पनिहारिन हो, कटि पर कच्चा कलश सम्हाले!
आकर्षण या वशीकरण या, इन्द्रजाल का करतब था!
जो भी था क्या लेना देना, जीने का मतलब अब था!

रूप गर्विता देख तुम्हें हर, कली फूल ने आंखे मीचीं!
उपवन में बेहोश तितलियाँ, भौरों ने आहें भीचीं!
उधर गुलाबी अम्बर धरती, यहाँ धुरी पर डोल गयी!
क्या लाई थी रूपनगर से, जो मौसम में घोल गयी!

ओ मधुबाला सच बतलाना कैसे बगिया महकाई!
नेह गगरिया जानबूझ या, अनजाने में छलकाई!
छलक गयी तो फिर प्यासे की, प्यास और बढ़ जानी थी!
इक राजा इक रानी वाली नई कथा गढ़ जानी थी!

झिझक रहे थे अधर आँख ने परिचय के अध्याय पढ़े!
ढाई आखर के फिर हमने, नये-नये पर्याय गढ़े।
किस्मत बनकर वे रहतीं अब ऐसे भाग्य लकीरों में!
जैसे रहती गंध सुमन में रहते प्राण शरीरों में!