भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस्म बे जान है पड़ा हूँ मैं / अर्पित शर्मा 'अर्पित'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 17 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्पित शर्मा 'अर्पित' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस्म बे जान है पड़ा हूँ मैं
ऐसा लगता है के मरा हूँ मैं

किस जगह आज खो गया हूँ मैं
अपने साये को ढूंडता हूँ मैं

आँसुओ का नहीं हिसाब कोई
बहते दरिया पे ही खड़ा हूँ मैं

है नहीं कोई साथ में मेरे
किस्से ये बात कर रहा हूँ मैं

ख़ाबे राहत दिखा तू आईना
और ग़म से संवर गया हूँ मैं

अब हवाओ में ढूंढिएगा मुझे
खुद में भी अब नहीं रहा हूँ मैं

घर के आईने से पता पूछो
अब उसी में छुपा हुआ हूँ मैं

उसकी हर चीज़ मुझको रोती है
जिस मकाँ में कभी रहा हूँ मैं

धूप देखे हुए ज़माना हुआ
कितनी रातो को सो चुका हूँ मैं

ख़ुद को भुला हुआ हूँ मैं "अर्पित"
ये बताए कोई के क्या हूँ मैं