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जि़न्दगी है, फरमाइश तो नहीं / अशोक शाह

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बिल्कुल सम्भलकर न चलो
धरो ना फूँक फूँक के पाँव
उधर जाने से डरो न इधर आने से

दिन-रात के हर पहर से गुजरो
जरा देखों तो कोई पल अछूता
छूट गया हो कहीं

उलट-पलट के देखो हर क्षण को
उसके पीछे लगा कोई दाग तो नहीं
चिपका न हो कोई उपदेश
लिखा कोई दिशा निर्देश

घिसें विचार ही बन गये हो न राह
हमारी रिवायतो की बिछी हो न दरी
हर परदा हटाके, हर दरीचा खोलके देखो
आने दो वह सबा जो सदियों से
आ न सकी भीतर

रखो जख़्मों पर उँगली और जानो,
इंसां के दर्द का कारण क्या है
निकल पड़ो दिशाहीन अकेला
जहाँ साथ न हो तुम्हारी परछाई भी
आख़िर यह ज़िन्दगी तुम्हारी है
किसी की फ़रमाईश तो नहीं