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जीत को भी मुझे हार कहना पड़ा / डी. एम. मिश्र

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जीत को भी मुझे हार कहना पड़ा
एक दुश्मन को दिलदार कहना पड़ा

आँसुओं पर छिड़ी बज़्म में जब बहस
मुझको पानी को अंगार कहना पड़ा

है तो नाजु़क मगर कितना मजबूत है
इसलिए दिल को दमदार कहना पड़ा

साक्ष्य कितने दिये, पर वो माना नहीं
फिर ख़़ुदी को ख़तावार कहना पड़ा

ऐसी मजबूरियाँ भी हैं आयीं कभी
एक अहमक को हुशियार कहना पड़ा

उसकी ताक़त के आगे मेरी क्या बिसात
एक ज़ालिम को सरकार कहना पड़ा