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जीवन: चार सोपान / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

मैं जन्मा! जननी की आँख से
अपनी रत्न-किरण छोड़ती
विस्मय-विस्फारित-आँख मिला;
उसके अँगूठे से गुदगुदाये-
अपने स्निग्ध, लार-टपकाते ओठों से,
काचे-सौंधे आँगन में,
शहतूत के पेड़ों की छाया में,
अपने नन्हे चरण लहराता,
मैं किलका था!
पुलहाया! हमजोलियों के कंधों में हाथ डाल,
चिलचिलाती झील के तट
इमली के बागों में
मैंने कहकहे लगाये थे!
खिला! मुक्ताभ अंगूरी चाँदनी के कुंजों में,
दंगचलों में
तुम्हारी नाक की लौंग की किरण लिये-
तुम्हें आलिंगन में ले
मैं मुसकराया था!
और अब फला! बस अब-
हिम-से भारी जड़ीभूत मेघों में-
शिशिर का अवसाद-करुण सूर्यास्त शेष है!