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जीवन की जंग / अमित धर्मसिंह

पैदा होने के साथ
वे एक जंग लड़ने लगते हैं
उनकी जंग सीमा पर लड़े जाने वाली जंग नहीं होती
न उस तरह की जंग होती है
जो देश के भीतर लड़ी जाती है
जातीयता और धर्म के हथियारों से।

उनकी जंग
अल्पपोषण की शिकार
माँ की दूधियों से दूध निचोड़ने की जंग होती है
वे रोटी, कपड़ा और मकान के दम पर
जीवन की जंग नहीं लड़ते
बल्कि उनको हासिल करने के लिये
जीवन दाँव पर लगाये रखते हैं।

दरांती, खुरपा, कुदाल, फावड़ा
करनी-बिसौली या छैनी-हथौड़ी
उनके जंगी हथियार होते हैं
बहुत बार वे अपने हथियारों से भी जख़्मी होते हैं
कई बार तो मर भी जाते हैं
अपने ही हथियार से।

फिर भी
जीवित बचे रहने के लिए
वे लगातार लड़ते हैं
जबकि उन्हें मालूम तक नहीं होता
कि उनकी लड़ाई किससे है
कौन उन पर कहाँ से हमले करता है
वे बस चारों तरफ से हो रहे हमलों से
लहूलुहान होते रहते हैं
और अपनी पूरी शक्ति समेटकर
अपने मट्ठे हथियारों से युद्धरत रहते हैं।

उनके जीवन में संघर्ष-विराम
या संधि-वार्ता जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

अंत मे वे लड़ते हुए ही मारे जाते हैं
मगर उनके काँधों पर
बहादुरी का तमगा नहीं लगाया जाता
न ही उनके जिस्म लपेटे जाते हैं किसी ध्वज में
देश की जबान में ऐसे लोग
शहीद नहीं होते
क्योंकि वे देश की नहीं
जीवन की जंग लड़ते हैं।