भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन के कितने मंसूबे / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन के
कितने मंसूबे
ऐसे ही रह जाते
गीत नहीं बन पाते।

इतनी भीड़
भरा कोलाहल
खोज रहे हैं हम अपने को
अभी हाथ से छूट गया जो
उस नन्हे
भोले सपने को
उखड़ी जड़ें
धूप परदेसी
पात-पात पियराते।
किसे पूछ लें
कौन बताये
सब तो ये खुद ही खोये हैं
सबके सपने इसी भीड़ में
कहीं सिसकते हैं
राये हैं
रोटी तो मिल गयी
लुटी छत, आँगन, रिश्ते नाते।

यह बज़ार है
और नहीं कुछ
यहाँ
खरीदो या बिक आओ
अपना उल्लू
अपनी गोटी
अगर सको तो
फिट कर जाओ
वरना
कौन पूछने वाला
       रह जाओ पछताते।