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"जीवन के पहिए के नीचे, जीवन के पहिए के ऊपर / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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मैं बहुत गाता हूँ,
 
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बहुत लिखता हूँ
 
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कि मेरे अंदर
 
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जो मौन है,
 
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बंद है, बंदि है,
 
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जो सब के लिए
 
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और मेरे लिए भी
 
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अज्ञात है, रहस्‍यपूर्ण है,
 
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वह मुखरित हो, खुले,
 
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स्‍वच्‍छंद हो, छंद हो,
 
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गाए और बताए
 
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कि वह क्‍या है, कौन है,
 
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जो मेरे अंदर मौन है।
 
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मेरे दिल पर, दिमाग़ पर,
 
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साँस पर
 
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एक भार है-
 
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एक पहाड़ है।
 
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मैं लिखता हूँ तो समझो,
 
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मैं अपने क़लम की निब से,
 
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कि मैं आजादी से साँस लूँ,
 
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आज़ादी से विचार करूँ,
 
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आज़ादी से प्‍यार करूँ।
 
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उधर
 
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पत्‍थर है, चट्टान है, पहाड़ है,
 
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उधर उँगली है, लेखनी है, निब है,
 
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लेकिन इनके पीछे -
 
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क्‍या तुम्‍हें इसका नहीं ध्‍यान है?
 
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हाथ है,
 
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इंसान है,
 
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कवि है।
 
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बिहटा-दुर्घटना
 
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उसने आँखों से देखी थी।
 
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मैंने पूछा,
 
मैंने पूछा,
 
 
कौन
 
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सबसे अधिक मार्मिक
 
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दृश्‍य तुमने देखा था?
 
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याद कर वह काँप उठा,
 
याद कर वह काँप उठा,
 
 
आँखें फाड़,
 
आँखें फाड़,
 
 
साँस खींच,
 
साँस खींच,
 
 
बोला वह,
 
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एक आदमी का पेट
 
एक आदमी का पेट
 
 
रेल के पहिए से दबा था,
 
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पर वह चक्‍के को
 
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सड़सी-जैसे पंजों से
 
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कसकर, पकड़कर, जकड़कर
 
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दाँत से काट रहा था,
 
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सारी ताक़त समेट!
 
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दाँत जैसे सख्‍त हुए
 
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लोहे के चने चबा!
 
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क्षणभर में हो हताश
 
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गिरा दम तोड़कर,
 
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लेकिन उस लोहे के पहिए पर
 
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कुछ लकीर,कुछ निशान
 
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छोड़कर!
 
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और जो मैं बहुत गा चुका हूँ,
 
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कभी अपने अंदर भी पैठता हूँ
 
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कि देखूँ मेरे अंदर जो
 
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मौन है, बंद है,
 
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वह कुछ मुखरित हुआ, खुला,
 
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तो एक आजन्‍म बंदी
 
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जो अगणित जंजीरों से बद्ध है,
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केवल कुछ को हिलाता है,
 
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धीमे-धीमे झनकाता है,
 
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व्‍यंग्‍य से मुसकाता है,
 
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मानो यह बताता है
 
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कि इतना ही मैं स्‍वच्‍छंद हूँ,
 
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कि इतना ही तुम्‍हारा छंद है!
 
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और जो मैं बहुत लिख चुका हूँ,
 
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न आज़ादी से प्‍यार कर सकता हूँ,
 
न आज़ादी से प्‍यार कर सकता हूँ,
 
 
न विचार कर सकता हूँ,
 
न विचार कर सकता हूँ,
 
 
न साँस ले सकता हूँ,
 
न साँस ले सकता हूँ,
 
 
न मेरा पाप कटा है,
 
न मेरा पाप कटा है,
 
 
न मुझ पर से पहाड़ हटा है,
 
न मुझ पर से पहाड़ हटा है,
 
 
न भार घटा है,
 
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और जो मैंने अपने क़लम की नोक से
 
और जो मैंने अपने क़लम की नोक से
 
 
छेदा है, भेदा है,
 
छेदा है, भेदा है,
 
 
कुरेदा है,
 
कुरेदा है,
 
 
उससे मैं
 
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पत्‍वार पर, चट्टान पर
 
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सिर्फ कुछ लकीर लगा सकता हूँ,
 
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कुछ खुराक बना सका हूँ।
 
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लेकिन जब तक
 
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मेरा दम नहीं टूटता
 
मेरा दम नहीं टूटता
 
 
मैं हताश नहीं होता,
 
मैं हताश नहीं होता,
 
 
मुझसे मेरा क़लम नहीं छूटता।
 
मुझसे मेरा क़लम नहीं छूटता।
 
 
मेरा सरगम नहीं छूटता।
 
मेरा सरगम नहीं छूटता।
 
  
 
सृष्‍ट‍ि की दुर्घटना है
 
सृष्‍ट‍ि की दुर्घटना है
 
 
और मेरे पेट पर
 
और मेरे पेट पर
 
 
जीवन का पहिया है,
 
जीवन का पहिया है,
 
 
लेकिन जो मुझमें था
 
लेकिन जो मुझमें था
 
 
देव बल,
 
देव बल,
 
 
दानव बल,
 
दानव बल,
 
 
मानव बल,
 
मानव बल,
 
 
पशु बल-
 
पशु बल-
 
 
सबको समेटकर
 
सबको समेटकर
 
 
मैंने उसे पकड़ा है,
 
मैंने उसे पकड़ा है,
 
 
पंजों में जकड़ा है।
 
पंजों में जकड़ा है।
 
  
 
जब वह मुझसे छूट जाए,
 
जब वह मुझसे छूट जाए,
 
 
मेरा दम टूट जाए,
 
मेरा दम टूट जाए,
 
 
पहिए पर देखना,
 
पहिए पर देखना,
 
 
होगा मेरा निशान,
 
होगा मेरा निशान,
 
 
मेरे वज्रदंतों से
 
मेरे वज्रदंतों से
 
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लिखा स्‍वाभिमान-गान!</poem>
लिखा स्‍वाभिमान-गान!
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19:11, 18 अक्टूबर 2019 का अवतरण

मैं बहुत गाता हूँ,
बहुत लिखता हूँ
कि मेरे अंदर
जो मौन है,
बंद है, बंदि है,
जो सब के लिए
और मेरे लिए भी
अज्ञात है, रहस्‍यपूर्ण है,
वह मुखरित हो, खुले,
स्‍वच्‍छंद हो, छंद हो,
गाए और बताए
कि वह क्‍या है, कौन है,
जो मेरे अंदर मौन है।

मेरे दिल पर, दिमाग़ पर,
साँस पर
एक भार है-
एक पहाड़ है।
मैं लिखता हूँ तो समझो,
मैं अपने क़लम की निब से,
नोक से,
उसे छेदता हूँ, भेदता हूँ,
कुरेदता हूँ,
उस पर प्रहार करता हूँ
कि वह भार घटे,
कि वह पहाड़ हटे,
कि पाप कटे
कि मैं आजादी से साँस लूँ,
आज़ादी से विचार करूँ,
आज़ादी से प्‍यार करूँ।

उधर
पत्‍थर है, चट्टान है, पहाड़ है,
उधर उँगली है, लेखनी है, निब है,
लेकिन इनके पीछे -
क्‍या तुम्‍हें इसका नहीं ध्‍यान है?
हाथ है,
इंसान है,
कवि है।

बिहटा-दुर्घटना
उसने आँखों से देखी थी।
मैंने पूछा,
कौन
सबसे अधिक मार्मिक
दृश्‍य तुमने देखा था?
याद कर वह काँप उठा,
आँखें फाड़,
साँस खींच,
बोला वह,
एक आदमी का पेट
रेल के पहिए से दबा था,
पर वह चक्‍के को
सड़सी-जैसे पंजों से
कसकर, पकड़कर, जकड़कर
दाँत से काट रहा था,
सारी ताक़त समेट!
दाँत जैसे सख्‍त हुए
लोहे के चने चबा!
क्षणभर में हो हताश
गिरा दम तोड़कर,
लेकिन उस लोहे के पहिए पर
कुछ लकीर,कुछ निशान
छोड़कर!

और जो मैं बहुत गा चुका हूँ,
कभी अपने अंदर भी पैठता हूँ
कि देखूँ मेरे अंदर जो
मौन है, बंद है,
वह कुछ मुखरित हुआ, खुला,
तो एक आजन्‍म बंदी
जो अगणित जंजीरों से बद्ध है,
केवल कुछ को हिलाता है,
धीमे-धीमे झनकाता है,
व्‍यंग्‍य से मुसकाता है,
मानो यह बताता है
कि इतना ही मैं स्‍वच्‍छंद हूँ,
कि इतना ही तुम्‍हारा छंद है!

और जो मैं बहुत लिख चुका हूँ,
न आज़ादी से प्‍यार कर सकता हूँ,
न विचार कर सकता हूँ,
न साँस ले सकता हूँ,
न मेरा पाप कटा है,
न मुझ पर से पहाड़ हटा है,
न भार घटा है,
और जो मैंने अपने क़लम की नोक से
छेदा है, भेदा है,
कुरेदा है,
उससे मैं
पत्‍वार पर, चट्टान पर
सिर्फ कुछ लकीर लगा सकता हूँ,
कुछ खुराक बना सका हूँ।

लेकिन जब तक
मेरा दम नहीं टूटता
मैं हताश नहीं होता,
मुझसे मेरा क़लम नहीं छूटता।
मेरा सरगम नहीं छूटता।

सृष्‍ट‍ि की दुर्घटना है
और मेरे पेट पर
जीवन का पहिया है,
लेकिन जो मुझमें था
देव बल,
दानव बल,
मानव बल,
पशु बल-
सबको समेटकर
मैंने उसे पकड़ा है,
पंजों में जकड़ा है।

जब वह मुझसे छूट जाए,
मेरा दम टूट जाए,
पहिए पर देखना,
होगा मेरा निशान,
मेरे वज्रदंतों से
लिखा स्‍वाभिमान-गान!