जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है
नफ़रत की तहज़ीब ने अपना रंग अजब दिखलाया है
गाँवों में जो सब लोगों को इक—दूजे तक लाती थीं
किसने आकर उन रस्मों को आपस में उलझाया है
तुमने अगर था अम्न ही बाँटा, राह, गली, चौरा्हों में
सुनते ही क्यों नाम तुम्हारा हर चेहरा कुम्हलाया है
सोख तटों को नदिया तो फिर सागर में मिल जाएगी
बेशक पूरे दम से बादल घाटी पर घिर आया है
जन—गण—मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है
अब के भी आई आँधी तो बच्चो ! ज़ोर लगा देना
इस घर को पुरखों ने भी तो कितनी बार बनाया है
बातों का जादूगर है वो, सपनों का सौदागर भी
सदियों से भूखे—प्यासों को जिसने भी बहलाया है
‘सूरज’ पर अब थूक रहे है जिस नगरी के बाशिंदे
उस नगरी को धूप से अपनी ‘सूरज’ ने नहलाया है
खेल यहाँ कब था सच कहना, झूठ न बोलो ‘द्विज’ तुम भी
तुमने भी तो सच —सच कह कर अपना आप गँवाया है