भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुगनू हवा में ले कि उजाले निकल पड़े / 'फ़य्याज़' फ़ारुक़ी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:59, 29 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='फ़य्याज़' फ़ारुक़ी |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जुगनू हवा में ले कि उजाले निकल पड़े
यूँ तीरगी से लड़ने जियाले निकल पड़े
सच बोलना महाल था इतना के एक दिन
सूरज की भी ज़बान पे छाले निकल पड़े
इतना न सोच मुझ को ज़रा देख आईना
आँखों के गिर्द हल्के भी काले निकल पड़े
महफ़िल में सब के बीच था ज़िक्र-ए-बहार कल
फिर जाने कैसे तेरे हवाले निकल पड़े