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जुड़ाव / जया पाठक श्रीनिवासन

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मैं तुम्हारे हाथ में
अपना हाथ रख देखती हूँ
हम दोनों का परस्पर जुड़ाव
उँगलियों के पोरों से लेकर
आत्मा की जड़ों
तक किस कदर रचा बसा है
तभी तुम बेफिक्री से कह उठते हो
आज मौसम कितना खराब है
कितनी गर्मी है आज
और मेरी उँगलियों के कोंपल
झुलस जाते हैं एकाएक
 
 


मुझे बहुत क्लीशे लगता है कई बार
तुम्हारे लिए व्रत उपवास करना
चाँद की राह तकना
या धागा बाँधना
किसी दरख़्त के चारों ओर
लेकिन फिर भी
मैं किये बिना नहीं रह पाती ये सब
तुम्हारे लिए दुआएँ मांगने का
कोई मौका
मैं चूकना नहीं चाहती कभी
तुम्हारे ही कारण
मेरे और मेरे ईश्वर के बीच
दुआओं का रिश्ता कायम है
 
 


कभी कभी सोचती हूँ
कि तुम जो ये हमेशा
मेरी बातों का एक भौतिक लक्ष्य
मेरे शब्दों की एक नश्वर देह
खोजने लगते हो
उस से मेरे कहे का अर्थ
किस कदर
बदल जाता होगा
क्योंकि
मेरी बातों की कोई देह तो दूर
इनका तो कई बार
कोई रंग तक नहीं होता
होती है तो केवल एक खुशबू
जिसे तुम चाह कर भी
मुट्ठी में कैद नहीं कर सकते