भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जुरि चली हें बधावन नंद महर घर / नंददास

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:42, 16 मई 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुरि चली हें बधावन नंद महर घर सुंदर ब्रज की बाला।
कंचन थार हार चंचल छबि कही न परत तिहिं काला॥१॥

डरडहे मुख कुमकुम रंग रंजित , राजत रस के एना।
कंचन पर खेलत मानो खंजन अंजन युत बन नैना॥२॥

दमकत कंठ पदक मणि कुंडल, नवल प्रेम रंग बोरी।
आतुर गति मानो चंद उदय भयो, धावत तृषित चकोरी॥३॥

खसि खसि परत सुमन सीसन ते, उपमा कहां बखानो।
चरन चलन पर रिझि चिकुर वर बरखत फूलन मानो॥४॥

गावत गीत पुनीत करत जग, जसुमति मंदिर आई।
बदन विलोकि बलैया ले लें, देत असीस सुहाई॥५॥

मंगल कलश निकट दीपावली, ठांय ठांय देखि मन भूल्यो।
मानो आगम नंद सुवन को, सुवन फूल ब्रज फूल्यो॥६॥

ता पाछे गन गोप ओप सों, आये अतिसे सोहें।
परमानंद कंद रस भीने, निकर पुरंदर कोहे॥७॥

आनंद घर ज्यों गाजत राजत, बाजत दुंदुभी भेरी।
राग रागिनी गावत हरखत, वरखत सुख की ढेरी॥८॥

परमधाम जग धाम श्याम अभिराम श्री गोकुल आये।
मिटि गये द्वंद नंददास के भये मनोरथ भाये॥९॥