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जुल्फ़े-दौरां में न बल हो ये कहाँ मुमकिन है / 'हफ़ीज़' बनारसी
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जुल्फ़े-दौरां में न बल हो ये कहाँ मुमकिन है
मसअला वक़्त का हल हो ये कहाँ मुमकिन है
हर हसीं जिस्म कँवल हो ये कहाँ मुमकिन है
हर महल ताजमहल हो ये कहाँ मुमकिन है
चोट तो रोज़ कलेजे पर लगा करती है
रोज़ इक ताज़ा ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है
साकिया साग़रे-मय भी है बहुत खूब मगर
तेरी आँखों का बदल हो ये कहाँ मुमकिन है
वो जो हर रोज़ बदलते हैं अदाएँ अपनी
उनका वादा और अटल हो ये कहाँ मुमकिन है
जिस की फितरत में ही तल्खी हो वह क्या देगा मिठास
नीम में आम का फल हो ये कहाँ मुमकिन है
यूँ तो कह लेते हैं कहने को ग़ज़ल हम भी हफ़ीज़
मीर-सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है