Last modified on 29 अगस्त 2014, at 23:38

जूझते रहे / महेश उपाध्याय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 29 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश उपाध्याय |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पाँवों ने छोड़ दिया घर
अनचाहे काम के लिए
लानी है चार रोटियाँ
नन्हे आराम के लिए

टाँककर रजिस्टर में हाज़िरी
हम नई मशीन हो गए
घर पर तो एक अदद थे
दफ़्तर में तीन हो गए

शीशे से टूटते रहे
थोड़े से दाम के लिए

टूटी मुस्कानों पर अफ़सरी
एक कील ठोंकती रही
थोथी तारीफ़ बाँधती गई
हाथों की गति रही सही

जड़ता से जूझते रहे
काग़ज़ी इनाम के लिए ।