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जेठोॅ के ई धूप पिया / अनिल कुमार झा

जेठोॅ के ई धूप पिया
प्यास लगावै मोन सुखावै,
रहि-रहि हमरोॅ प्राण जरावै।

खन खन गोस्सा घुरि घुरि आबै
वेकल करने जाय जिया,
जेठोॅ के ई धूप पिया।

की कहियों सूरज के चिंता
कैन्हे है रंग जरी गेलै
कखनू कहाँ लगै छै अच्छा,
बच्चा बुतरू सांय धिया
जेठोॅ के ई धूप पिया।

बच्चा बूढ़ो सभे त्रस्त छै
मतुर सुरूज ते मगन मस्त छै,
की कुइंया पोखर की धरती
रही रही फाटै हाय हिया,
जेठोॅ के ई धूप पिया।

कहाँ बटोही राही चललै
छाँह राह के अनबन छै,
आशा के सुखलो पत्ता रो
कहीं जराबै एना छिया।
जेठोॅ के ई धूप पिया।