भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेा भी है जैसी भी है अपनी सँवारो ज़िंदगी / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
जेा भी है जैसी भी है अपनी सँवारो ज़िंदगी
काटनी है जिंदगी तो हँस के काटो ज़िंदगी।
चार दिन की है कहानी, चार दिन का साथ है
सोच करके बस यही बाकी गुजारो ज़िंदगी।
खुद में गूँगा हो के भी दरपन यही है बोलता
और सुंदर और भी सुंदर सजाओ ज़िंदगी।
भाग्य का यह खेल है या खेल कुदरत का कहो
जो भी है पर सत्य के नज़दीक लाओ ज़िंदगी।
एक कांधे पे है सुख तो दूसरे कांधे पे दुख
रूठ जाये तो गले से फिर लगा लो ज़िंदगी।