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जैसी हूँ / प्रतिभा सक्सेना

जैसी हूँ मैं, उसी रूप में प्रभु, स्वीकार करो!


जो स्वभाव है भाव वही लो, गलत लग रहा हो कि सही हो,
मनो-वासना देखो मेरी त्रुटियाँ उर न धरो.
भूल-भटक लौटी हूँ द्वारे, इन फंदों से कौन निवारे
बीत गया जो रीत गया, अब तुम परिताप हरो!


तुमने ही तो रचा मुझे यों, धुन पर नाचे नाच, नटी ज्यों,
जैसा बना, कर सकी जितना, अंगीकार करो .
कहाँ रहा मेरा कोई वश, बस इतना मुझसे पाया सध,
दोषों का परिहार करो प्रभु, अवगुण क्षमा करो.


पता न ये भी था करना क्या, कैसे जीवन को भरना था
चलती बेला में अपना लो, यह उपकार करो!
जो कुछ हुआ तुम्हीं ने प्रेरा, कभी हुआ क्या चाहा मेरा,
अंतिम परिणति पर आ पहुँची, तुम्हीं विचार करो .


अब तो जैसी हूँ वैसी हूँ, वृथा सोचना क्यों ऐसी हूँ
किसी भाँति निभ गई जगत में, अब अनुताप हरो .
सीमित मति विचारणा मेरी, दुर्बलताएँ रहीं घनेरी,
लेकिन अब दायित्व तुम्हारा, सिर पर हाथ धरो!


केवल यत्न देखना मेरे, निष्फलता के दंश नहीं रे,
क्या खोया क्या पाया अब तक, तुम्हीं हिसाब करो,
गहन कृष्णमयता में सारे, कलुष समा लो मोहन, मेरे
मेरे अंतर्यामी, मन के विषम विषाद हरो !