Last modified on 21 सितम्बर 2020, at 23:14

जैसे रहती है पावनता / कमलेश द्विवेदी

जैसे रहती है पावनता गंगा के जल में।
ऐसे ही तुम रहते हो मेरे अंतस्थल में।

तुमसे पाकर चेतनता मैं
चहका करता हूँ।
और तुम्हारे कारण ही मैं
महका करता हूँ।
जैसे गंध सुहानी महका करती संदल में।
ऐसे ही तुम रहते हो मेरे अंतस्थल में।

मीठी-मीठी एक कहानी
मुझसे कहती है।
एक मधुर धुन प्रतिपल मन में
बजती रहती है।
जैसे रुनझुन-रुनझुन गूँजा करती पायल में।
ऐसे ही तुम रहते हो मेरे अंतस्थल में।

आँखों में घूमा करता है
मौसम बरसाती।
मुझे तुम्हारी सतरंगी छवि
कितना हर्षाती।
जैसे बिजली रह-रह कौंधा करती बादल में।
ऐसे ही तुम रहते हो मेरे अंतस्थल में।