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जैसे लिखते हो, लिखते रहो / संजय कुमार शांडिल्य

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मैं सिर्फ़ अजीब तरह की कविताएँ लिखता हूँ
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं
ऐसी बेतरतीबी से क्यों रखा मुझे
लेकिन मैं आराम से हूँ और थोड़ी जगह है
साँस लेने भर यहाँ
मैं कहता हूँ कि हम एक-दूसरे के कन्धे क्यों छीलें
हमें जगह देने अन्तरिक्ष नहीं आएगा।
वाक्य अक्सर मैं पूरे लिखना पसन्द करता हूँ
हैं या थे पर आराम करती हैं क्रियाएँ
संज्ञा-सर्वनाम झपकियाँ ले लेते हैं
अधिक से अधिक कोई क्या कहेगा — थोड़ी शब्द-स्फीति है
तब तक अपनी हथेली पर तम्बाकू मल लेंगें
विचार
फिर आराम से निकलेंगे हवा-पानी धूप में।
अर्थ की लाल आँखें पीछे आती हैं हाँपते-काँपते
उन्हें अपना काम करना है, कर लेंगे
गोमास्ता-लठियाल भी तो चखें थोड़ा हवा-पानी-धूप
मैं अक्सर चाहता हूँ कि उनकी छतरियाँ उलट जाएँ
खेतों से बिदके बैल उनकी तरफ झपटें
यह माँजो, वह खोदो, वहाँ पाटो, यहाँ जोतो
इतनी गुलामी के लिए लाचार नहीं हैं कविताएँ
ज़मीन है तो रहा करे, मजूरी तो हमारी है
ऊसर-बंजर, रेत सब हरा हो जाएगा ऐसी तरावट है पसीने की
और जैसे मेरी भट्टी में सुलगता है लोहा
बात कोयले की नहीं है
यह देखो उठा है फावड़ा मिट्टी को भुरभुरा करने
इस मिट्टी से बर्रे अपना घर बना सकते हैं
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं — जैसे लिखते हो, लिखते रहो।