भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जोड़ियाँ तो बनाता है रब / गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:34, 4 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह धनुष तो वज्र का जैसे बना है
टूटता ही नहीं,
फिर-फिर लौटते हैं जनक असफल, थके-हारे।
सिर झुकाये स्वयं से संवाद करते
पूछते-क्यों बेअसर हो गये फिर से
शगुन सारे?
लिये वन्दनवार
मालिन राह में मिलती कभी जब
दृष्टि पृथ्वी पर गड़ाये बहुत तेजी से निकलते
और सखियाँ लौटतीं ससुराल से जब
माँ बहुत उद्विग्न रहती उन दिनों है
आँख में आँसू मचलते।
पस्त होते हौसलों में भी
निकल पड़ते पिता फिर
एक टूटी नाव ज्यों,
तूफान में खोजे किनारे।
रूप-रंग, कद, आयु, शिक्षा, कुण्डल, कुल,
दक्षिणा-संकल्प क्या है पूछते सब।
और फिर कोई बहाना खोजकर
कुछ वेदना के भाव दिखलाकर बताते
जोड़ियों को तो बनाता है सदा रब।
बहुत पहले बताते थे,
पर नहीं कुछ बोलते अब लौटने पर
पूछती माँ भी नहीं, केवल निहारे।