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जो कहा जाना चाहिए / ग्युण्टर ग्रास / अभिषेक श्रीवास्तव

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मैं चुप क्‍यों रहा, क्‍यों छुपाता रहा इतने लम्बे समय तक
वह खुला राज़
जिसे बरता गया बार-बार जंगी मैदानों में, और
जिसके अन्त में जो बचे हम
तो हाशिये से ज़्यादा कुछ भी नहीं थी हैसियत हमारी ।

ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर
उन्‍होंने खड़ा कर दिया एक उत्‍सव-सा कुछ
जिसमें दब गई यह बात, कि
यह पहले हमला करने का कथित अधिकार ही है
जो मिटा सकता है ईरानी जनता को --
क्‍योंकि उनकी सत्‍ता का दायरा फैला है
एक न्‍यूक्लियर बम बनने की आशंकाओं के बीच
वे मानते हैं कि ऐसा कुछ ज़रूर हो रहा है ।

बावजूद इसके, क्‍यों रोके रहा ख़ुद को मैं
उस दूसरे देश का नाम लेने से
जहाँ बरसों से, भले गुपचुप
न्‍यूक्लियर आकाँक्षाओं की तन रही थी मुट्ठी अदृश्‍य
क्‍योंकि उस पर किसी का जोर, कोई जाँच कारगर नहीं ?

इन बातों को छुपाया गया दुनिया भर में
जिसमें शामिल थी मेरी चुप्‍पी भी --
जब्र तले एक झूठ की मानिन्द --
जिसे सज़ा मिलनी ही चाहिए
बल्कि सज़ा मुकर्रर थी, बशर्ते इस चुप्‍पी को हम तोड़ते ।

यहूदी विरोध के फ़तवे से तो आप वाकि़फ़ होंगे ।
अब, चूँकि मेरा देश
जो एक नहीं, कई बार रहा साक्षी ख़ुद अपने अपराधों का --
(और इसमें इसका कोई जोड़ नहीं)
बदले में यदि विशुद्ध व्‍यावसायिक नजरिए से ही
विनम्र होंठों से इसे करार देकर प्रायश्चित
इजरायल को न्‍यूक्लियर पनडुब्‍बी भेजने का करता हो ऐलान
जिसकी ख़ूबी महज इतनी है
कि वह दाग सकती है तमाम विनाशक मिसाइलें वहाँ
जहाँ एक भी एटम बम का वजूद अब तक नहीं हुआ साबित
लेकिन डर, ऐसा ही मानने पर करता है मज़बूर बासबूत
तो कह डालूंगा मैं वो बात
जो अब कही जानी चाहिए ।

लेकिन अब तक मैं ख़ामोश क्‍यों रहा?
इसलिए, क्‍योंकि मेरी पैदाइश की धरती
जिस पर जमे हैं कभी न मिटने वाले कुछ दाग
रोकती थी मुझे कहने से वो सच
इजरायल नाम के उस राष्‍ट्र से, जिससे बिंधा था मैं
और अब भी चाहता ही हूँ बिंधे रहना ।

फिर आज क्‍या हो गया ऐसा
कि सूखती दवात और बुढ़ाती क़लम से
मैं कह रहा हूँ यह बात
कि न्‍यूक्लियर पावर इजरायल से
इस नाजुक दुनिया के अमन-चैन को ख़तरा है ?

क्‍योंकि यह कहा ही जाना चाहिए
कल, हो सकता है बहुत देर हो जाए;
और इसलिए भी कि उसका बोझ लादे हम जर्मन
न बन जाएँ कहीं ऐसे किसी अपराध के भागी
जो न दिखता हो, न ही मुमकिन हो जिसका प्रायश्चित्‍त
पुराने परिचित बहानों और दलीलों से ।

लिहाजा, तोड़ दी है अपनी चुप्‍पी मैंने
क्‍योंकि थक गया हूँ मैं पश्चिम के दोगलेपन से;
इसके अलावा, एक उम्‍मीद तो है ही
कि मेरी आवाज़ तोड़ सकेगी चुप्‍पी की तमाम ज़ंजीरों को
और आसन्‍न ख़तरा बरपाने वालों के लिए होगी एक अपील भी
कि वे हिंसा छोड़, ज़ोर दें इस बात पर
कि इज़रायल की न्‍यूक्लियर सामर्थ्‍य और ईरान के ठिकानों पर -–
दोनों देशों की सरकारों को मान्‍य एक अन्तरराष्‍ट्रीय एजेंसी
की रहे निगरानी
स्‍थायी और अबाधित ।

एक यही तरीका है
कि सभी इजरायली और फ़िलिस्‍तीनी
यहाँ तक कि दुनिया के इस हिस्‍से में फैली सनक के बन्दी
तमाम लोग
रह सकें साथ मिल-जुल कर
दुश्‍मनों के बीच
और जाहिर है, हम भी
जिन्‍होंने अब खोल दी है अपनी ज़बान !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अभिषेक श्रीवास्तव