भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है / अब्दुल अहद 'साज़'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल अहद 'साज़' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:30, 24 मार्च 2020 के समय का अवतरण
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
रूदाद एक लम्हा-ए-वहशत-असर की है
फिर धड़कनों में गुज़रे हुओं के क़दम की चाप
साँसों में इक अजीब हवा फिर उधर की है
फिर दूर मंज़रों से नज़र को है वास्ता
फिर इन दिनों फ़ज़ा में हिकायत सफ़र की है
पहली किरन की धार से कट जाएँगे ये पर
इज़हार की उड़ान फ़क़त रात भर की है
इदराक के ये दुख ये अज़ाब आगही के, दोस्त !
किस से कहें ख़ता निगह-ए-ख़ुद-ए-निगर की है
वो अन-कही सी बात सुख़न को जो पुर करे
'साज़' अपनी शायरी में कमी उस कसर की है