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जो कुर्सी पर बैठता है / शिवशंकर मिश्र

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जब आदमी जमीन पर नहीं बैठ सकता
कुर्सी पर बैठता है
कुर्सी उसे
जमीन से अलग
ऊपर उठाकर रखती है
जब वह चलता भी है
उसके पाँव
कुर्सी में ही चलते होते हैं।

जब आदमी कुर्सी पर बैठता है
जमीन पर फिर नहीं बैठता
जमीन को ही ऊपर उठा लेता है
अपनी मेज तक
चाहता है सब कुछ उस की मेज में ही आ जाए
अब जो भी वह करता है
मेज पर करता है।

मेज की टाँगों और पेट में
बनाता है वह
तरह-तरह की दराजें
और दराजों में
कई- कई जगहें सब अलग इस्तेामाल की
धीरे-धीरे सब कुछ तब
वह अपनी मेज में ही कर लेता है।

उस की मेज में ही
समा जाता है पूरा दफ्तर
कर्मचारी, चपरासी एक-एक
थाना, जिला, प्रदेश
और धीरे-धीरे मेज ही उसकी
तब देश पर आरूढ़ हो जाती है
और कुर्सी
उस की कुर्सी
जमीन से बहुत ऊपर उठ जाती है।

जमीन ऐसे एकदम नहीं छूती
हवा भी नहीं
कुछ भी जो जमीन पर है, हवा में है
उसे नहीं छूता
उस की कुर्सी भी
जमीन से और हवा से भी बहुत ऊपर
बहुत ऊँचे उछल जाती है।

और उस की मेज से सटे
उस के कर्मचारी, चपरासी
और दूसरे सब उस के लोग
जैसे आसमान चढ़ जाते हैं।

अकेली रह जाती है जमीन
हवा में धँसी हुई, नीचे
अकेले रह जाते हैं हम
नीचे, जमीन पर
और हमारा देश
हमारे ही भीतर
कब्रें बनाता जाता है
गहरे, और गहरे सब
कब्रों की कई-कई मंजिलें।

आदमी जब कुर्सी पर बैठता है
वह जान लेता है
उस का फर्ज
न कुर्सी से छोटा है
न कुर्सी से बड़ा है।

आदमी जो कुर्सी पर बैठता है
जानता है सब ठीक-ठीक किस तरह
उस का फर्ज
न कुर्सी के बिना है
न कुर्सी के बाहर है!