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जो नहीं दिखता दिल्ली से / सुशान्त सुप्रिय

बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए