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जो बे-सबात हो उस सर-ख़ोशी को क्या कीजे / नून मीम राशिद

जो बे-सबात हो उस सर-ख़ोशी को क्या कीजे
ये ज़िंदगी है तो फिर ज़िंदगी को क्या कीजे

रूका जो काम तो दीवानगी ही काम आई
न काम आए तो फ़र्ज़ानगी को क्या कीजे

ये क्यूँ कहें के हमें कोई रह-नुमा न मिला
मगर सरिश्‍त की आवारगी को क्या कीजे

किसी को देख के इक मौज लब पे आ तो गई
उठे न दिल से तो ऐसी हँसी को क्या कीजे

हमें तो आप ने सोज़-ए-अलम ही बख़्शा था
जो नूर बन गई उस तीरगी को क्या कीजे

हमारे हिस्से का इक जुरआ भी नहीं बाकी
निगाह-ए-दोस्त की मय-ख़ानगी को क्या कीजे

जहाँ ग़रीब को नान-ए-जवीं नहीं मिलती
वहाँ हकीम के दर्स-ए-ख़ुदी को क्या कीजे

विसाल-ए-दोस्त से भी कम न हो सकी ‘राशिद’
अज़ल से पाई हुई तिश्‍नगी को क्या कीजे