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जो रास्ते थे ही नहीं / विजेन्द्र

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जो रास्ते थे ही नहीं
मैं उन ही पर
बराबर चलता रहा
 
बाद में लगा वे रास्ते ही हैं
जो वनों ने ढँक लिए थे
ओह ! वे रास्ते ही हैं
कहाँ, किधर, कैसे —
वे किस मंज़िल तक पहुँचेंगे
नहीं जानता

हर मोड़ पर राख की ढेरियाँ थी
सूर्यास्त की बुझी किरनें
उनमे सुनी सिसकियाँ
कराहटें अबूझ
लेकिन वहाँ मुझे रुकने नहीं दिया गया
 
चाँद अब नहीं दीखता
वह कविता से भी गायब है
सूर्योदय -सूर्यास्त
अब बहुमंज़िली इमारतें
देखने ही नहीं देती
 
हर समय एक अजाने वक़्त की
चौहद्दियों में क़ैद हूँ
कोरोना ने इतना कमज़ोर
बना दिया है
 
वह वसन्त भी नहीं
जो हर नई फुनग को
चूमने को ललकता था
आकाश को भी मैंने नापा
हवा की गति भी जानी
धूप की तपिश में
फलों को पकते देखा
हर चीज़ सत्य होकर भी
स्वप्न का आयतन ही थी

धिक्कारों से पस्त होकर
जाने कितने भीगते वनों में
भटकता रहा
वह कोई वक़्त नहीं था
जब मैंने अपने इरादे तय किए
और उन्हें बदला
फिर तय किए
फिर बदला
 
दूसरे समझते रहे
मैं निराश हूँ
जबकि मेरा पथरीला रिक्त
किसी अदेखी-अनसुनी वर्षा से
सराबोर था ।