Last modified on 27 नवम्बर 2020, at 18:35

जो सहसा लुप्त हुए / विजय सिंह नाहटा

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:35, 27 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय सिंह नाहटा |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जो सहसा लुप्त हुए
वो ही सबसे ज़्यादा
गाए गये किंवदंतियों में।
जो बने रहे भरे-पूरे जीवंत
जीवन की कामचलाऊ
उधेङबुन में डूबे हुए
पाठयक्रम की तरह
शब्दश: जीते हुए
जीवन को परीक्षा की तरह
फिर नहीं दिखाई दिए
कभी किसी उद्धरण में।
जिन्होंने ताबङतोङ तोड़े-मरोड़े
कायदे-कानून
नियमों के राजमार्ग से हटकर
बनाई अपनी अलग पगडंडियाँ
सुर्खियों में रहे सनसनीखेज ख़बर से।
जिन्होने ज़िया जीवन को उसकी
नैसर्गिक आभा तले
संगीत की एक लय में गुथे
कालांतर में वे न रहे उल्लेखनीय
औ' यकायक विलुप्त हुए।
जब अंध रूढियों से ठसाठस
भर गयी समूची पृथ्वी
और संवेदना कराहती रही मोटे
जिल्दों तले
जब अच्छाइयों ने चमक खो दी
और अब हैरतअंगेज न रही उनकी आमद
तब एक दिन आततायियों ने
घेर लिया शहर
और कुछ भी विस्मय न हुआ
और; जो येन केन तख्तापलट
घोषित हुए
वो ही समवेत स्वर में
विजेता की तरह गाये गये।