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ज्वालामुखी के दहाने पर / उर्मिल सत्यभूषण

मैं ज्वालामुखी के दहाने पर खड़ी हो गई
आश्चर्य! मेरी आस्था, मुझसे बड़ी हो गई।
प्रसुप्त ज्वालामुखी के
भीतर उबाल है
अंगड़ाई ले रहा तपी
फटने को ज्वाल है
विध्वसंकारी शक्तियां
हैं सिर उठा रही
आमूल चूल परिवर्तन
के गीत गा रही
मैं क्रान्ति के स्वागतम को खड़ी हो गई
लावा तैयार हो रहा है
सर्वनाश का
इंगित सभी ही कर रहे
महाविनाश का
ग्रास बन जायेगी
मेरी देह गम नहीं
जलूँगी मैं निस्संदेह
पर, चेतना नहीं
मेरी प्रतिज्ञा शिला जैसी कड़ी हो गई
मेरा रोम-रोम
जल जाने को बेकरार
राख बन बिखर जाने को
मेरा अणु-अणु तैयार
मेरे सुरों में प्रलय गीत
कर रहे हुंकार
आज तांडव की
सुनाई दे रही झंकार
स्वयं मैं ज्वालमाल की इक लड़ी हो गई।