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झंकार / राकेश खंडेलवाल

कौन झंकारता तार मन के मेरे
उँगलियाँ सारी मुझको मिलीं व्यस्त ही

किस तरह गीत अपना सुनाऊँ तुम्हें
मन की वीणा के तारों में कम्पन नहीं
खुश्बुओं में डुबो के शब्द बिखराये तो
किन्तु महका कहीं कोई चन्दन नहीं
मैंने कितना अलंकृत किया शब्द को
किन्तु मिल न सका अर्थ कोई उन्हें
हो गया व्यर्थ श्रृंगार सारा प्रिये
छू न पाया मेरा प्रस्फुटित स्वर तुम्हें

ताकता मैं रहा नित्य प्राची मगर
उगने से पहल सूरज हुआ अस्त ही

अर्थ को खोजते श्बद खुद खो गया
जो था शाश्वत कभी, आज नश्वर हुआ
भावनायें मेरी खटखटाती रहीं, द्वार
पर हर हृदय आज पत्थर हुआ
देखते देखते मेरी सम्प्रेषणा
लड़ती अवरोध से छिन्न हो रह गयी
जो भी संचित थी पूँजी मेरी साँस की
आह की आँधियों में सिमट बह गयी

रोज पलकों पे अपनी सजाता रहा, पर
महल स्वप्न का हर मिला ध्वस्त ही

स्वर सभी गूँजते शंख के खो गये
आरती मन्दिरों से परे रह गयी
रास्ता भूल कर खो गई है घटा
बात ये इक हवा पतझरी कह गई
साँझ के दीप में शेष बाती नहीं
रोशनी क्षीण हो टिमटिमाती रही
जो न निकली किसी साज के तार से
एक आवाज़ सी सिर्फ़ आती रही

गणना तारों नक्षत्रों की जब भी करी
हर सितारा मिला राहू से ग्रस्त ही
कौन झंकारता तार मन के मेरे
उँगलियाँ सारी मुझको मिलीं व्यस्त ही