Last modified on 12 जनवरी 2009, at 02:54

झील पर पंछी:तीन /श्रीनिवास श्रीकांत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:54, 12 जनवरी 2009 का अवतरण ("झील पर पंछी:तीन /श्रीनिवास श्रीकांत" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

(प्रस्थान)

हो गया
अब देस लौटने का समय
वे हो रहे पंक्तिबद्घ
उडऩे को
अपनी-अपनी दिशाओं में

साथ में नहीं कोई सामान-असबाब
न कोई लद्दू जानवर

वे उडेंगे तो उनका साथ देगा
उनका दु:स्साहस
उनके पंख

आसमान
हवा
और दूर-दूर तक
विहंगावलोकन करती
उनकी दिव्य आँख

वे उड़ेंगे तो लाँघेंगे
एक से एक सुन्दर भूखण्ड
बीहड़ घाटियाँ
घने बियाबान
शहरों पर से गुज़रेंगे वे
एक के बाद एक
पंक्तिबद्घ
उनके मैल, उनके धुएँ को नकारते
दिन-भर यात्रा के बाद
यदि वे उतरेंगे
तो एकान्त जलों के तट
शिकारगाहों से अलग
प्रजननातुर
अपने वंश को बढ़ाते

असह्य भूमध्य गर्मियों में
वे त्याग देंगे
परदेस का मोह
और लौटेंगे एक दिन
पिघलती बर्फ़ के
सुविस्तृत पठारों में
जब आसमान होगा
बिल्कुल साफ़
और जलाशयों में
फिर से उतर सकेंगे
सूर्य के बिम्ब
चोटियाँ नज़र आयेंगी
शंक्वाकार
और ठण्डे मैदानों में प्रकृति होगी
सौम्य और उदात्त
होंगे ध्रुवीय देवता भी
प्रसन्न और शान्त।