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झील / विजय कुमार सप्पत्ति

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आज शाम सोचा;
कि,
तुम्हें एक झील दिखा लाऊं ...
पता नहीं तुमने उसे देखा है कि नहीं..
देवताओं ने उसे एक नाम दिया है….

उसे ज़िन्दगी की झील कहते हैं...

बुज़ुर्ग, अक्सर अलाव के पास बैठकर,
सर्द रातों में बतातें है कि,
वह दुनिया कि सबसे गहरी झील है
उसमें जो डूबा,
फिर वह उभर कर नहीं आ पाया।

उसे ज़िन्दगी की झील कहते हैं...

आज शाम,
जब मैं तुम्हें, अपने संग,
उस झील के पास लेकर गया,
तो तुम काँप रही थी,
डर रही थी;
सहम कर सिसक रही थी।
क्योंकि;
तुम्हें डर था; कहीं मैं...
तुम्हें उस झील में डुबो न दूँ।

पर ऐसा नहीं हुआ ...

मैंने तुम्हें उस झील में;
चाँद-सितारों को दिखाया;
मोहब्बत करने वालों को दिखाया;
उनकी पाक मोहब्बत को दिखाया;

तुमने बहुत देर तक,
उस झील में,
अपना प्रतिबिम्ब तलाशा।

तुम ढूंढ रही थी..
कि
शायद मैं भी दिखूं..
तुम्हारे संग,
पर
ईश्वर ने मुझे छला…

मैं क्या.. मेरी परछाई भी,
झील में नहीं थी ..तुम्हारे संग !!!

तुम रोने लगी ....
तुम्हारे आंसू, बूँद-बूँद
ख़ून बनकर झील में गिरते गए ..
फिर झील का गन्दा और जहरीला पानी साफ़ होता गया..
क्योंकि अक्सर ज़िन्दगी की झीलें ..
गन्दी और ज़हरीली होती हैं ..

फिर, तुमने
मुझे आँखे भर कर देखा...
मुझे अपनी बांहों में समेटा ...
मेरे माथे को चूमा..
और झील में छलांग लगा दी ...
तुम उसमें डूबकर मर गयी।

और मैं...
मैं ज़िंदा रह गया,
तुम्हारी यादों के अवशेष लेकर,
तुम्हारे न मिले शव की राख;
अपने मन पर मलकर
मैं ज़िंदा रह गया।

मैं युगों तक जीवित रहूंगा
और तुम्हें आश्चर्य होगा पर,
मैं तुम्हें अब भी
अपनी आत्मा की झील में
सदा देखता रहता हूँ...

और हमेशा देखता रहूंगा..
इस युग से अनंत तक ..
अनंत से आदि तक ..
आदि से अंत तक..
देखता रहूंगा ...देखता रहूंगा ...देखता रहूंगा ...