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झुका के सर को चलना जिस जगह का क़ाएदा था / सिराज अजमली

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झुका के सर को चलना जिस जगह का क़ाएदा था
मेरे सर की बुलंदी से वहाँ महशर बपा था

क़ुसूर-ए-बे-ख़ुदी में जिस को सूली दी गई है
हमारे ही क़बीले का वो तन्हा सर-फिरा था

उसे जिस शब मधुर आवाज़ में गाना था लाज़िम
रिवायत है कि उस शब भी परिंदा चुप रहा था

फ़रिश्ते दम-ब-ख़ुद ख़ाइफ़ सरासीमा फ़ज़ा थी
हुजूम-ए-गुम-रहा था और ख़ुदा का सामना था

मुसाफ़िर जिस के रूकने की तवक़्क़ो थी ज़ियादा
न जाने क्यूँ बहुत जल्दी सफ़र पर चल दिया था