Last modified on 1 जुलाई 2013, at 08:32

झुकी निगह में है ढब पुर्सिश-ए-निहानी का / 'ममनून' निज़ामुद्दीन

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:32, 1 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='ममनून' निज़ामुद्दीन |संग्रह= }} {{KKCatG...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

झुकी निगह में है ढब पुर्सिश-ए-निहानी का
हया में ज़ोर दिया रंग मेहर-बानी का

जिए हैं गर्म नफ़स सोज़ से कि बहर-ए-चराग़
करे है शोला ही काम आम-ए-ज़िन्दगानी का

तबस्सुम-ए-लब-ए-ग़ुंचा को देख रोता हूँ
कि ठीक रंग कि उस ख़ंदा-ए-निहानी का

कहाँ से ज़ोर-ए-दिल-ओ-सीना-ओ-जिगर लाऊँ
तुम्हें तो खेल लगा हाथ तेग़-रानी का

इलाही जैब कि दामन कि आस्तीं धोऊँ
मिज़ा ले सीख लिया शुग़्ल ख़ूँ-फ़िशानी का

नहीं बचा मरज़-ए-इश्क़ से कोई ‘ममनूँ’
हमें दरीग़ बहुत है तेरी जवानी का