भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झुकी हुयीं बाअदब हैं आँखें / संदीप ‘सरस’

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:23, 27 अगस्त 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झुकी हुयीं बाअदब हैं आँखें।
खुदा कसम क्या ग़ज़ब हैं आँखें।

भले ही लब चुप रहें तुम्हारे,
मुझे तो लगता है लब हैं आँखे।

तुम्हारी आँखों में जब से झाँका,
हुई मिरी बेअदब हैं आँखें।

निगाह उठना निगाह फिरना,
अदा का तेरी ही ढब हैं आँखें।

सम्हालती हो न जाने कैसे,
मुझे लगा बातलब हैं आँखें।

निगाह में शोखियाँ सी थीं कल,
मगर नशीली सी अब हैं आँखें

कभी नज़ाकत में कातिलाना,
कभी सितम का सबब,हैं आँखें।