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झूठे धागे / मनोज कुमार झा

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मोबाइल तीन लौटाए मैंने
एक तो साँप की आँख की तरह चमकता था
एक बार-बार बजता था उठा लिया एक बार
तो उधर से छिल रहे खीरे की तरह नरम आवाज़ ने हेलो कहा
एक को लौटाया मोबाइल तो हलवा मिला ईनाम
क्या ये सब झूठ हैं नाना के प्रेत के क़िस्सों की तरह
कि एक ने चुराकर ईख उखाड़ते वक़्त तीस ईख उखाड़ दीं
एक ने बीच जंगल में साइकिल में हवा भर दी
क्या लालसाएँ ऐसे ही काटती है औचक रंगों के सूते
और इतने सुडौल झूठ की कलाई
कि पकड़ो तो लहरा उठता है रोम-रोम ।