Last modified on 30 जून 2012, at 04:27

झूठे धागे / मनोज कुमार झा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:27, 30 जून 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मोबाइल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मोबाइल तीन लौटाए मैंने
एक तो साँप की आँख की तरह चमकता था
एक बार-बार बजता था उठा लिया एक बार
तो उधर से छिल रहे खीरे की तरह नरम आवाज़ ने हेलो कहा
एक को लौटाया मोबाइल तो हलवा मिला ईनाम
क्या ये सब झूठ हैं नाना के प्रेत के क़िस्सों की तरह
कि एक ने चुराकर ईख उखाड़ते वक़्त तीस ईख उखाड़ दीं
एक ने बीच जंगल में साइकिल में हवा भर दी
क्या लालसाएँ ऐसे ही काटती है औचक रंगों के सूते
और इतने सुडौल झूठ की कलाई
कि पकड़ो तो लहरा उठता है रोम-रोम ।