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टट्टू भाडे़ का / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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मोटी खाल, सलाख़ें छोटी
डर फिर काहे का
कुर्सी चढ़ा दहाड़ें भरता
टट्टू भाड़े का

गधा पचीसी सुना रहा है
ऊँची तानों में
गूँगों का दरबार लगाए
घर दालानों में
चौखट पर स्वर रहा सुनाई
 फटे नगाड़े का

कलाबाजियाँ खाने में वह
पक्का माहिर है
घास देखकर पूँछ हिलाने
में जग जाहिर है
मौसम चाहे गरमी का हो
या फिर जाड़े का

मीठे बोल अधर पर अंदर
तीखा ज़हर भरे
देख-देख कर लँगड़ी चालें
सारा शहर डरे
उल्टा-सीधा पढ़ा रहा है
पाठ पहाड़े का

मोटी खाल, सलाख़ें छोटी
डर फिर काहे का