Last modified on 12 दिसम्बर 2014, at 23:11

टारगेट / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

उफ़ यह टारगेट भी!
विलग और अपरिहार्य सरल जीवन शैली से
जहाँ इसका कोई नहीं मान
पर वह जीवन तो कीड़े भी जीते है
लेकिन कहने से क्या?
बिना टारगेट भी तो पाते हैं अलभ्य
कुछ भाग्यशाली इंसान से
निर्दयी दनुज
गोया जानवर तक
जो पसीना बहाते उनका असमय अंत
जो बैठे रहते वो कहलाते गुणवंत
पर यह तो काल का है टारगेट
जिसे हमने कहाँ देखा?
इसलिए बनाया ध्येय
पाने का अपने जीवन के टारगेट को
मेरे लिए तो है यही
जीवन का पहला और आख़िरी अध्याय
नहीं सूझता कोई इसका पर्याय
इस भूमंडलीकृत मंदी में
जो प्रकृतिप्रदत्त नहीं
है हमारे कर्मों की उपज
प्रजातंत्र के सारथी साधुओं की देन
अपने कर्मो से बने चंद ब्यूरोक्रेट्स का ब्रेन
विदेशों में कालाधन सड़ रहा
यहाँ निर्बल मर रहा
टारगेट के प्रकोपों से
अपने लिए तो छद्म अनुदान
इसके सहारे पूंजीपति बन रहे धनवान
मेरे लक्ष्य भेदन से वो हासिल करते
टारगेट का सार्थक रूप
ढाल- लक्ष्य- उदेश्य-निशाना
प्रतिक्षण बुनते ताना बाना
हमारे उड़ते प्राण
वो पाते सम्मान
इसके मत्स्य नयनो की पुतली में
बेधन से अर्जुन के प्रतिद्वंदियों की तरह
एक बार भी यदि हम पिछड़ेंगे
तो सूखी रोटी के लिए भी तरसेंगें!
द्रौपदी को पाने की कल्पना भी यहाँ निरर्थक