भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टार्च / अरुण देव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 20 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> उजाले ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उजाले में यों ही पड़ा था आँखें बंद किए
जैसे वह कुछ हो ही नहीं
उसे तो जैसे अँधेरे की प्रतीक्षा भी नहीं
कि रौशन हो सके उसका होना

हाँ, अगर अँधेरा घिर आए
सूझे न रास्ता
उजाले तक न पहुँच पाए हाथ
वह आ जाता है ख़ुश-ख़ुश
और तब भी दिखती है रौशनी
वह कहाँ दिखता है

कभी-कभी फ़ोकस ठीक करना होता है
काटनी होती है कालिमा
नहीं तो बिखर जाता है प्रकाश
धुँधला पड़ जाता लक्ष्य

वह है वहाँ अब भी जहाँ चमक-दमक कम है
अँधेरी रात में उसके सहारे
किसी पगडंडी पर चल कर देखो
तब दिखता है उसका होना