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टिका दिए हैं ओक में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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16
शुभ कर्मों का है मिला, बदले यह उपहार।
टिका दिए हैं ओक में,कुछ काँटे, अंगार।
17
जिन अधरों से थे झरे,हरदम हरसिंगार।
अपने चुन -चुन ले गए, होते ही भिनसार।।
18
मेरे भी मन में रही,आऊँ तेरे द्वार।
पग के छाले रोकते, चलने से हर बार।
19
अनजानी राहें सभी,साया ही था साथ।
जीवन अंधा मोड़ था,थामा तुमने हाथ।।
20
रात उदासी से भरी , हम कर दे उजियार।
चन्दा अपने साथ तो ,मिट जाए अँधियार
21
जीवन में तुमको मिले, सारा सुख- संसार ।
यश फैले चारों दिशा,बरसे पावन प्यार।।
22
राजा जनता का रहा, युगों युगों से खेल
कोल्हू में पेरे गए,खींचा सारा तेल।।
23
नारी की पूजा कहाँ, पढ़ी नहीं है पीर।
कोई भी हो युग रहा,पापी खींचे चीर ।
24
अब आएँ या अब मिलें, रोम -रोम हैं कान ।
कौन द्वार पर है खड़ा उनको तनिक न भान।
25
रस्ते में दम तोड़ते, सारे ही सन्देश।
आँखों में मन में तिरे, तेरे उलझे केश।।
26
खोया -खोया दिन रहा,आँसू भीगी रात।
पलभर को कब हो सकी,अपनों से भी बात।।
27
बाहर छाया मौन था,भीतर हाहाकार।
मन में रिसते घाव थे,हुआ नहीं उपचार।
28
कहने को तो भीड़ थी,आँगन तक में शोर।
मेरे अपने मौन थे,चला न उन पर जोर।।
29
नींद नहीं थी नैन में,सपने कोसों दूर।
मन की मन में ही रही,सब कुछ चकनाचूर।।
30
जीवन को बाँधे सदा, गहन प्रेम की डोर।
नेह -भाव से हों पगे, जिसके दोनों छोर।।