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टुकड़े जोड़ते समय आ जाए मृत्यु / मनोज सुरेन्द्र पाठक

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सन्दर्भ खो जाते हैं
हम असहाय हो जाते हैं
इतना कि कविता के पन्ने तक फाड़ देते हैं
मन की सपाट दीवार पर
छिपकली की तरह रेंगते रहते हैं विचार

जबसे गूढ़ कविताएँ पढ़ी हैं
चूहे और कौए का
एक नया ही डर
मन की बस्ती में बस गया है
घर में और बाहर
शत्रुओं की संख्या एक-सी है
यह अभी पता चला
फिर भी कोई बिजली चमके
और दिखाई दें कुछ बिखरी पड़ी
आशावादी कविताएँ
तमाम ज़िन्दगी को रखा जाए
गिरवी इन कविताओं के लिए
और फाड़ी हुई कविताओं के
टुकड़े जोड़ते समय आ जाए मृत्यु

मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा